प्रस्तावना / Introduction –

पिछले कुछ दिनों से दलबदल कानून के बारे में बहुत चर्चा मीडिया के माध्यम से हमें देखने को मिलता है, जिसमे सबसे ताजा विषय है है महाराष्ट्र का राजनितिक संकट जिसमे शिवसेना पार्टी में विधायकों द्वारा किया गया विद्रोह जिसके कारन यह विषय ज्यादा चर्चा में आया है। इसलिए हम इस आर्टिकल के माध्यम से दलबदल कानून के बारे में पूरी जानकारी सरल भाषा में जानने की कोशिश करेंगे। जिससे हमें जो दलबदल कानून क्या हे और यह कैसे बनाया गया यह हम देखेंगे।

हरियाणा में एक विधायक गयालाल द्वारा ७० के दशक में एक दिन में तीन बार पार्टी बदली थी जिससे भारत की राजनीती में एक मुहावरा बना था जिसे ” आया राम और गया राम ” कहा जाता है। जबतक पंडित नेहरू द्वारा कांग्रेस को चलाया जाता था तब तक भारत में कांग्रेस का एकछत्र वर्चस्व रहा है, मगर उनके निधन के बाद कांग्रेस से निकल कर कई प्रादेशिक पार्टिया जन्म लेनी लगी जो कांग्रेस के लिए सरदर्द का कारन बनी थी । इसलिए इंदिरा गाँधी के प्रधानमंती बनने के बाद कई बार इसके लिए कानून बनाया जाना चाहिए यह पहल की गयी थी।

यशवंतराव चव्हाण गृहमंत्री रहे थे उनके नेतृत्व में एक आयोग बनाकर दलबदल कानून के बारे में एक रिपोर्ट तैयार किया गया था मगर यह कानून बनाने के लिए राजीव गाँधी की सरकार का इंतजार करना पड़ा था जो ४०४ सीटों से सबसे ज्यादा सांसद चुनकर आए थे। इससे पहले सभी सरकारों द्वारा दलबदल कानून बनाने की कोशिश की गयी थी मगर मामला राज्यसभा में फस जाता था। १९८५ में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी की सरकार बानी जो सबसे ज्यादा सांसद लेकर बनी थी और राज्यसभा में भी यह कानून बनाने के लिए कोई समस्या नहीं थी।

दल बदल विरोधी कानून क्या है ? / What is the Anti Defection Law-

  • दलबदल कानून किसके लिए है ?
  • राजनितिक पार्टी के सदस्य
  • स्वतंत्र /अपक्ष सदस्य
  • राज्यसभा /विधानसभा सदस्य

१९८५ में राजीव गाँधी सरकार द्वारा संसद में दलबदल कानून बनाया गया था जिसके अंतर्गत सांसद और राज्यों के विधायक इनके लिए पार्टी बदलने के लिए प्रतिबन्ध करने वाला यह कानून बनाया गया था। इस कानून के तहत सांसद तथा राज्यों के विधायकों द्वारा किसी पार्टी के अंतर्गत चुनाव जितने के बाद पार्टिया बदली जाने वाली जिससे कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए यह एक सरदर्द का विषय बन गया था। इसलिए यह कानून संविधान के १० वे सूचि में दलबदल कानून को जोड़ा गया।

दलबदल विरोधी कानून का मुख्य उद्देश्य सरकारे चलते समय स्थिरता आए यह रहा हे जो प्रादेशिक पार्टियों के बढ़ने से कांग्रेस पार्टियों के कई सांसद और विधायक पार्टी के चिन्ह पर चुनाव जितने के बाद दूसरे पार्टियों में शामिल होने लगे जिसपर रोक लगाने के लिए यह कानून बनाया गया। संसद तथा विधानसभा में पार्टी विप के माध्यम से किसी कानून के लिए पार्टी की भूमिका यह सदस्यों के लिए बंधन करक रहेगी यह इस कानून के माध्यम से तय किया गया। संसद तथा विधानसभा के बाहर भी पार्टी के विरोध में भूमिका लेने पर पार्टी ऐसे सदस्यों पर कार्यवाही करने का अधिकार इस कानून के माध्यम से दिया गया।

१/३ सांसद अथवा विधायक पार्टी को विभक्त करने पर सदस्यों की सदस्यता बच सकती हे यह प्रावधान किया गया तथा २/३ सांसद /विधायक दूसरे पार्टी में विलीन होने पर सदस्यत्व बच सकता हे ऐसे प्रावधान किए गए। २००३ में अटलबिहारी वाजपायी सरकार द्वारा इसमें संशोधन करके १ /३ के नियम को ख़त्म किया गया और सदस्यत्व बचाने २/३ सदस्यों को दूसरे पार्टी में विलीन होने का प्रावधान रखा गया। समय समय पर इस कानून का दुरूपयोग पार्टियों द्वारा किया जाता हे जिसे “हॉर्स ट्रेडिंग” कहा जाता है यह देखने को मिला है।

दलबदल कानून के महत्वपूर्ण प्रावधान / Important Provisions of Anti-Defection Law –

  • सांसद और विधायक कब अपात्र /अयोग्य घोषित किए जाते है ? ( १०वी अनुसूची)
  • स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यत्व का इस्तीफा देना।
  • पार्टी के विप के विरोध संसद /विधानसभा में मतदान करना।
  • पार्टी के विप के बावजूद किसी कानून पर अपना मतदान नहीं करना।
  • अगर किसी सदस्य ने १५ दिन पहले पार्टी की संमती से किसी मतदान प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लिया हे तो यह अपवाद माना जाएगा और सदस्यत्व अबाधित रहेगा।
  • अपक्ष सांसद अथवा विधायक चुनाव के बाद किसी पार्टी का सदस्य बनता है।
  • राज्यसभा अथवा विधानपरिषद के सदस्य अगर ६ महीने के भीतर किसी पार्टी के सदस्य बनते है।
  • अपात्र /अयोग्य घोषित करने के लिए अपवाद प्रावधान
  • सांसद /विधायक अपात्र नहीं हो सकता जब उसकी पार्टी किसी दूसरी पार्टी में विलीन होती है (२/३ सदस्य किसी दूसरी पार्टी में विलीन होने का निर्णय लेते है )
  • अपात्र /अयोग्य घोषित करने का अधिकार किसको होता है ?

संसद /विधानसभा के अध्यक्ष /स्पीकर को सांसद और विधायकों को अपात्र घोषित करने का अधिकार होता है।
यदि सदन के अध्यक्ष अथवा स्पीकर के अपात्र घोषित करने का हो तो उस सदन के सदस्यों द्वारा यह प्रक्रिया पूरी की जाती है।

दल बदल विरोधी कानून का इतिहास/History of Anti Defection Law –

1969 में यशवंतराव चव्हाण के अध्यक्षता में आयोग बनाकर दलबदल कानून बनाने के लिए क्या उद्देश्य होना चाहिए यह तय किया गया तथा भारत के अलग अलग राज्यों में निर्माण होने वाली प्रादेशिक पार्टिया यह इस कानून के बनाने के कारन रहा है। इस आयोग के २१० विधायको का अध्ययन में देखा गया की ११६ विधायक पार्टी बदलके दूसरे पार्टी के मंत्रिपद पर विराजमान हुए जिससे दलबदल कानून की जरुरत देश में है ऐसा कहा गया। दलबदल कानून को कैसे पढ़ना हे यह समझने के लिए हमें “Due Process of Law” और Procedure Established by Law” इन कानूनी सिद्धांतो को समझना होगा जिससे कानून कैसे पढ़ना हे यह समझेंगे। वैसे तो भारत में Procedure established by Law यह सिद्धांत इस्तेमाल किया जाता है।

इंदिरा गाँधी के सरकार द्वारा यह कानून बनाने के लिए कई प्रयास किए गए मगर राज्यसभा में बहुमत न होने की वजह से यह कानून बनाने के लिए १९८५ तक रुकना पड़ा। संविधान के १० वे सूचि में इसको जोड़ा गया और इस कानून को मार्च १९८५ में लागु किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य पार्टियों के होने वाले दल बदल को रोकना। इस कानून में मुख्य रूप से सांसद और विधायक को रखा गया और पार्टी के विप के विरोध में तथा पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए किए जाने वाले कार्य पर सदस्यों का निलंबन करने का अधिकार पार्टियों को दिया गया।

२००३ में इसको और संशोधित किया गया जब अटलबिहारी वाजपईजी की सरकार थी जिसके तहत १ / ३ सदस्यों के विद्रोह पर जो सुरक्षा थी उसको रद्द कर दिया गया। इससे पहले यह धारा के तहत पार्टी की सुरक्षा में कोई फर्क नहीं दिख रहा था इसलिए इस कानून में यह रद्द कर दिया गया और २/३ सदस्यों के विद्रोह पर दूसरे पार्टी में विलीन होने पर सदस्यत्व रखा गया। फिर भी आजतक हम देखते हे की इस कानून की खामिया निकलकर इसका दुरूयप्योग सभी पार्टियों द्वारा होर्से ट्रेडिंग के लिए किया जाता हे ऐसे दिखता है।

दल बदल विरोधी कानून का उद्देश्य/ Object of Anti -Defection Law –

भारत में केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार में स्थिरता प्रदान करना यह इस कानून के बनाने का प्रमुख उद्देश्य रहा है। किसी भी पार्टी के सदस्यों द्वारा पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए अनुशासन के तहत ऐसे सदस्यों के सदस्यत्व को रद्द करना यह नियम बनाया गया। कोई भी सांसद अथवा विधायक जब अपने पार्टी के चिन्ह पर चुनाव जीतता हे और पार्टी के विचारधारा के विरोध में तथा संसद और विधानसभा में पॉलिसी के विरोध में वोट करता हे उसका सदस्यत्व रद्द किया जाता है।

यह कानून लाने से पहले सांसद और विद्यायकों के द्वारा एक पार्टी के अंदर चुनाव लड़ा जाता था था दूसरे पार्टी में लाभ के पद के लालच में पार्टी छोड़ी जाती थी और यह प्रमाण बहुत बढ़ा था। इसलिए कांग्रेस जैसी देश की सबसे बड़ी पार्टी के अस्तित्व पर सवाल खड़े होने लगे थे। आज केंद्र में भाजपा और कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टिया हे तथा राज्यस्तरीय कुछ पार्टिया हे जिनके सदस्यों के विद्रोह को रोकने के लिए यह कानून बनाया गया जिससे देश में सरकार चलते समय स्थिरता आए।

संसद तथा विधानसभा में रखे गए किसी भी कानून पर विधायक अथवा सांसद पार्टी की पॉलिसी के खिलाफ बोल नहीं सकते तथा पार्टी लाइन पर चलते हुए कार्य करे यह उद्देश्य रखा गया। संसद और विधानसभा बाहर पार्टी के विरोध में कोई भी बात अथवा गतिविधिया /कार्य नहीं करे यह भी कारन रखा गया। ब्रिटेन और अमरीका में यह कानून नहीं बनाया गया है वह किसी भी कानून पर सरकार के सदस्यों को विरोध में बोलने का अधिकार होता है। इसलिए बोलने की आजादी यह मुलभुत अधिकार से यह कानून विसंगत हे ऐसा लगता है।

दलबदल विरोधी कानून की विशेषताए / Features of Anti Defection Law –

  • यशवंतराव चव्हाण जी के अध्यक्षता में एक आयोग बनाकर इस कानून के लिए १९६९ में उद्देश्य बनाया गया था जिसको १९८५ में राजीव गाँधी की सरकार द्वारा कानून का स्वरुप दिया गया।
  • संविधान की १० वी अनुसूची को दलबदल कानून के रूप में जाना जाता है जो संविधान की ५२ वा संशोधन अधिनियम था जिसके तहत सांसद तथा विधायकों के लिए दलबदल करने के लिए प्रतिबन्ध लगाए गए।
  • १९८५ के दलबदल अधिनियम के तहत १ /३ सदस्यों के दलबदल को विलय माना जाता था और इनकी सदस्यता बरक़रार रहती थी।
    दलबदल के सभी अधिकार संसद में अध्यक्ष /स्पीकर और विधानसभा में अध्यक्ष /स्पीकर के होते है।
  • दलबदल के सभी अधिकार स्पीकर के पास होते हे मगर इसकी न्यायिक प्रक्रिया के लिए कोई समय सिमा इस कानून में निर्धारित नहीं की गयी है।
  • २००४ ९१ वे संविधानिक संशोधन के तहत १/३ सदस्यों के विभाजन को रद्द करते हुए २ /३ सदस्यों के दूसरे पार्टी में विलय को इस कानून के तहत मान्यता दी गयी है।
  • १९७० के दशक में आयाराम यह विधायक रह चुके हे जिन्होंने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली जिससे सरकार की अस्थिरता पे सवाल उठे थे और “आयाराम और गयाराम ” यह मुहावरा दल बदलने वाले सदस्यों के लिए प्रसिद्द हुवा था।
  • दलबदल कानून होने के बावजूद इसकी खामिया देखते हुए आज भी इसका फायदा उठाते हुए विधायकों तथा सांसदों की खरीद फरोख्त होती है, जिसे हॉर्स ट्रेडिंग कहते है ।
  • सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया हे की किसी निवृत्त न्यायाधीश के अध्यक्षता में एक अलग न्यायाधिकरण की व्यवस्था बनाकर दलबदल के प्रकरण तेजी से सुलझाने चाहिए।
  • दलबदल कानून राजनितिक पार्टियों को तो मजबूत करते हे मगर जो सांसद और विधायक अपने क्षेत्र से चुनकर आते हे उनके व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मत का आदर नहीं होता जो मुलभुत अधिकारों के विसंगत है।
  • ब्रिटेन में संसद का स्पीकर अपना पद ग्रहण करने से पहले अपने राजनितिक पार्टी का सदस्यत्व त्यागता हे मगर भारत में यह बरक़रार रहता हे जिससे न्यायिक प्रक्रिया में स्पीकर द्वारा निर्णयों में पक्षपात दिखता है।
  • अमरीका में सीनेट सदस्योंको अपनी पार्टी के विरोध में बोलने का अधिकार होता हे और ऐसा कोई कानून उनकी सदस्यता ख़त्म नहीं करता ।
  • कर्नाटक और मध्यप्रदेश में सदस्यों के इस्तीफे लेकर सरकार गिराने की कोशिश हुई वही महाराष्ट्र में २ /३ सदस्यों द्वारा अपनी पार्टी से विद्रोह करके महाविकास आघाडी सरकार अल्पमत में लायी गयी, जो दलबदल कानून की खामिया है ।

महाराष्ट्र सरकार का राजनितिक संकट / Political Crisis of Maharashtra Government –

महाराष्ट्र में शिवसेना के ३९ विधायकों द्वारा विद्रोह करके भाजपा से गठजोड़ करके सरकार स्थापित करने का मामला मीडिया पर सबसे अधिक चर्चा में है। दलबदल कानून की चर्चा इस विषय के माध्यम से हमें देखने को मिलती है। कर्नाटक मामला तथा राजस्थान मामला यह महाराष्ट्र के राजनितिक विषय से बहुत भिन्न है। कर्नाटक और राजस्थान में विधायकों द्वारा सदस्यत्व का इस्तीफा दिया गया था मगर महाराष्ट्र में विद्रोही विधायकों द्वारा यह नहीं किया गया है।

दलबदल कानून को ध्यान में रखते हुए २/३ सदस्यों को शिवसेना से अलग करके एकनाथ शिंदे गुट ने भाजपा से गठजोड़ करके सरकार स्थापित की है। जब यह विद्रोह हुवा था तब एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के विधानसभा में शिवसेना के गट नेता थे इसलिए विप का अधिकार उनके पास था मगर उनके विद्रोही होने पर उद्धव ठाकरे की शिवसेना द्वारा सदस्यत्व को रद्द कर दिया गया। महाराष्ट्र के डिप्टी स्पीकर द्वारा उनको निष्कासित करने का नोटिस भेजा गया जो एकनाथ शिंदे द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया है।

११ जुलाई को इसकी सुनवाई होने वाली है जिसमे सबसे प्रमुख मुद्दा हे की उनको निष्कासित करने का अधिकार विधानसभा में किसको है, क्यूंकि वह शिवसेना के गट नेता थे और उन्होंने अबतक इस्तीफा नहीं दिया है। विधानसभा के बाहर शिवसेना का विप अलग बात हे मगर विधानसभा में विप यह गट नेता का होता है। इसलिए यह कानूनी पेच हमें दलबदल कानून के माध्यम से देखने को मिलता है जो यह केस बाकि केस से अलग है जहा बागी विधायको द्वारा इस्तीफा नहीं दिया गया है। शिवसेना पर किसका नियंत्रण हे इसकी लड़ाई आगे जाकर हमें देखने को मिलने वाली है, जिसमे दलबदल कानून की भूमिका अहम् होने वाली है ।

राजनितिक पार्टी कैसे चलती है ? / How Political Party Works –

राजनितिक पार्टी कैसे चलाई जाती हे यह हमें समझना बहुत जरुरी है क्यूंकि महाराष्ट्र में जो राजनितिक संकट शुरू हे इसमें ३९ विधायकों द्वारा विद्रोह करके महाविकास आघाडी सरकार को गिराया गया। उद्धव ठाकरे द्वारा विद्रोही १६ विधायकों को निष्कासित किया गया जिसको एकनाथ शिंदे गुट द्वारा अवैध्य कहके सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया। इसलिए हमें पार्टी कैसे चलाई जाती हे यह सबसे पहले समझना होगा जिससे हमें समझमे आएगा की कौन गलत हे और कौन सही है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ यह कानून के तहत चुनाव आयोग के माध्यम से किसी भी राजनितिक पार्टी को मान्यता मिलती है। किसी भी भारतीय राजनितिक पार्टी की कोई एक व्यक्ति नहीं चला सकता इसकी प्रक्रिया लोकतान्त्रिक होती हे और इसका संविधान भारत के संविधान से विसंगत नहीं हो सकता। इसमें भी विधानसभा में किसी राजनितिक पार्टी का एक अलग समूह होता है जो विप चलाता है जो चुने हुए प्रतिनिधियों का होता है। जिसमे गट नेता होता के और पार्टी की विधानसभा में कार्यवाही चलाने के लिए वह प्रमुख होता हे जो प्रतोद के सहायता से सभी पार्टी की गतिविधिया पार्टी के उद्देश्य के हिसाब से चलाता है।

एकनाथ शिंदे केस में जब तक वह राज्य के विधानसभा में शिवसेना पार्टी के विधायक हे तबतक वह विधानसभा के वैध सदस्य है और उसमे भी वह खुद गट नेता २०१९ में चुने हुए हे जो दस्तावेज २०१९ को विधानसभा कार्यालय में सबूत के तौर पर है। इसलिए शिवसेना के विद्रोही सदस्यों को विधानसभा के अंदर सिर्फ एकनाथ शिंदे ही विप के माध्यम से अपना अधिकार चला सकते है। विधानसभा के बाहर पार्टी का विप उद्धव ठाकरे की पार्टी होगा, तथा लोकसभा में वह शिवसेना के गट नेता का होगा यह हमें समझना होगा। इसलिए कोई भी राजनितिक पार्टी विधानसभा में लोकसभा में अथवा स्थानिक स्वराज्य संस्था में अलग होती हे और बाहर अलग यह समझे।

दलबदल कानून और संविधानिक पेच / Anti defection Law & Constitutional Contradictions –

अमरीका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशो में यह कानून नहीं बनाया गया है, इस कानून के माध्यम से भारत में चुनके आने वाले विधायक और सांसद को पार्टी के विप में काम करना पड़ता है। भले ही वह सांसद अथवा विधायक पार्टी के चिन्ह पर चुनकर आते हे मगर वह लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपने मतदार संघ के प्रतिनिधि होते हे और पार्टी के सभी मतों पर वह सहमत नहीं हो सकते। दलबदल कानून के तहत पार्टीद्वारा संसद और विधानसभा में पार्टीद्वारा जारी किए गए विप पर सभी सदस्यों को पालन करना पड़ता है।

इसलिए अगर किसी कानून पर किसी विधायक अथवा सांसद को विरोध होते हुए भी वह कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकता ऐसा यह कानून कहता है। इसलिए यह कानून संविधान द्वारा दिए गए मुलभुत अधिकारों का उलंघन करता है। सभी नागरिको को अपनी राय रखने का अधिकार होता हे मगर यह कानून ऐसे सदस्यों को निष्कासित करके उसका सदस्यत्व रद्द करता है। इसलिए भले ही यह कानून का उद्देश्य स्थिर सरकार देना हो मगर स्थिर सरकार देना यही केवल लोकतंत्र का उद्देश्य नहीं होता।

यूरोप और अमरीका के विकसित देशो में ऐसे कानून नहीं बनाए गए हे मगर फिर हमें राजनितिक स्थिरता देखने है। भारत में भाजपा और कांग्रेस यह केंद्रीय स्तर पर दो मुख्य पार्टिया है जो अपनी पॉलिसी को पुरे देश में पारित करती है। किसी भी सांसद को इसके विरोध में मत देने का अधिकार इस विप के माध्यम से नहीं होता अथवा उस सांसद और विधायक का सदस्यत्व ख़त्म होता है। अपक्ष विधायक और सांसद को किसी भी पार्टी का सदस्य नहीं बनना होता मगर इससे किसी भी महत्वपूर्ण कानून पर जायज चर्चा नहीं होती जिससे सही कानून पारित नहीं होते और जिससे ऐसे कानून पर जमीनी स्तर पर विरोध देखने को मिलते है।

दलबदल विरोधी कानून की आलोचनात्मक विश्लेषण / Critical Analysis of Anti Defection Law –

दलबदल कानून के माध्यम से राजनितिक पार्टियों को अपनी पार्टी सुरक्षित करने का मौका तो मिल जाता हे मगर जो सांसद अथवा विधायक जिस क्षेत्र से चुनने के आता हे उस चुनाव क्षेत्र के लिए जवाब देहि होता है। लोकतंत्र ऐसा कहता है उस क्षेत्र के लोगो के लिए जवाबदेही होता हे परन्तु जब पार्टी विप जारी करके कोई कानून बनाती हे जो उन लोगो के विरोध में हो तो वह विधायक और सांसद कौनसे मुँह से अपने चुनाव क्षेत्र में दुबारा जाए यह सवाल निर्माण होता है।

सांसद और विधायकों के व्यक्तिगत अधिकार और अपने विचार प्रकट करनेका अधिकार इस कानून के माध्यम से ख़त्म किया गया हे ऐसे लगता है। पार्टी की विचारधारा और अनुशासन तो ठीक हे मगर व्यक्तिस्वातंत्र्य और मतदार के प्रति जवाब देहि यह भी हर संसद और विधायक का कर्तव्य होता है। इसपर यह कानून हे इसलिए यह कानून केवल राजनितिक पार्टियों के सुरक्षा के लिए बनाया गया हे ऐसा दिखता है। यह कानून बनाने के बाद शक्तिशाली सरकारे जो मुख्य रूप से केंद्र सरकार होती हे वह इसका दुरूपयोग राज्यों की सरकारे गिराने के लिए करती है ऐसा दिखता है।

यह कानून १९८५ को लाया गया हे मगर आजतक सभी पार्टियों ने इसका दुरपयोग सांसद और विधायको की खरीद फरोख करने के लिए किया हे ऐसे दिखता है। इसलिए केंद्र में जो भी सरकार शक्तिशाली होती हे वह राज्यों की सरकारे अपने नियंत्रण में रखने के लिए इस कानून का दुरपयोग करते हुए देखा गया है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस कानून के जुडिशल रिव्यु को मान्यता देते हुए इस कानून पर नियंत्रण रखने की हे जिसमे सुप्रीम कोर्ट का मानना हे की संसद और विधानसभा के स्पीकर यह किसी राजनितिक पार्टी के होते हे तथा उनके दिए गए आदेश ज्यादातर बार पक्षपाती होते है इसलिए कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ता है।

निष्कर्ष / Conclusion –

इसतरह हमने दलबदल कानून के बारे में जानने की कोशिश इस आर्टिकल माध्यम से की है, जिसको राजीव गाँधी की ४०० सीटों वाली सरकार द्वारा पारित किया गया था। इस कानून को लाने का मुख्य उद्देश्य उस समय की परस्थिति में कोई भी सरकार पूर्ण बहुमत हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही थी। राज्यों में स्थानिक राजनितिक पार्टियों का प्रभाव बढ़ रहा था। बहुत से सदस्य चुनाव एक पार्टी से लड़ते थे और उसके बाद तुरंत दूसरे पार्टी में शामिल होते थे। जिससे कांग्रेस जैसे स्थिर पार्टी को हमेशा यह डर लगा रहता था की उनके चिन्ह का दुरूपयोग किया जाता है।

इसलिए इंदिरा गाँधी की सरकार में जब कांग्रेस के दो टुकड़ो में विभाजन हुवा था तभी से इंदिरा गाँधी ने दलबदल के कानून को लाने की कोशिश की है। जिससे राजनितिक पार्टी के सदस्यों पर अंकुश रखा जाए मगर यह राज्यसभा के संख्या के कारन करने के लिए १९८५ तक इंतजार करना पड़ा। इंदिरा गाँधी के सहानभूति में राजीव गाँधी को ४०० से ज्यादा सीटे मिली और उन्होंने यह कानून संविधान संशोधन करके पारित किया। लगा की इससे आगे भारत में स्थिर सरकारे स्थापित होगी। परन्तु आजतक कई राज्यों की सरकारे गिराने के लिए इस कानून की खामियों का इस्तेमाल होता है।

कर्नाटक ,गोवा ,राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में इस कानून की खामियों का दुरूपयोग देखने को मिला है, सदस्यों की इस्तीफे के माध्यम से सरकारे गिराई जाती है। महाराष्ट्र की बात करे तो एक नयी रणनीति के तहत बिना इस्तीफा लिए २/३ शिवसेना सदस्यों को अलग करके महाविकास आघाडी सरकार को गिराया गया है। ऐसा नहीं हे की इसमें कोई एक पार्टी द्वारा इस कानून का दुरूपयोग होता है, जो भी राजनितिक पार्टी शक्तिशाली बनती है वह इसका दुरूपयोग करना चाहती है। इसलिए यह कानून सदस्यों के अपने चुनाव क्षेत्र के प्रति जो जिम्मेदारी है इससे विसंगत कार्य करने को मजबूर किया जाता है। ऐसा निरिक्षण इस माध्यम को मिलता है।

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