प्रस्तावना / Introduction –

द्वितीय विश्व युद्ध में यूरोप और बाकि देशो को काफी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था मगर अमरीका विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बना है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारन रहा हे, युद्ध के लिए लगाने वाली सामग्री अमरीका की प्रसिद्द कंपनिया बनाती थी जिसके कारन वह उस विश्व युद्ध के दौरान अचानक से तेजी में चलने लगी थी और कई गुना उत्पादन बढ़ने के कारन अमरीका की अर्थव्यवस्था बढ़ने लगी।

इस आर्टिकल के माध्यम से हम देखने की कोशिश करेंगे की कैसे किसी अर्थव्यवस्था को सोने का संचय महत्वपूर्ण होता हे और अमरीका ने इस आर्थिक निति को कैसे प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया है। पिछले ७० सालो से डॉलर के माध्यम से पूरी दुनिया पर राज करने के बाद कैसे इस मुद्रा के अस्तित्व पर एशियाई देश पर्याय तलाश कर रहे है। आर्थिक व्यवस्था में राजनितिक कूटनीति कैसे कार्य करती हे यह देखने की कोशिश करेंगे।

मानव सभ्यता में सोने और चांदी के सिक्के हजारो सालो से इस्तेमाल किए जाते रहे हे जो वैश्विक मुद्रा के विकास का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है और आज हम देख रहे हे की हर एक देश की केंद्रीय बैंक बड़े पैमाने पर सोना खरीदकर खुद को दूसरे देशो पर निर्भर रहने से बचने की कोशिश कर रहे है। इसलिए इस आर्टिकल में डॉलर को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के लिए पर्याय बनाने की कोशिश विकासशील देश कर रहे है।

विश्व अर्थव्यवस्था और डीडॉलराइजेशन क्या है? /What is De-Dollarization of World Economy ? –

पिछले कुछ दिनों से सभी मुख्य देशो के सेंट्रल बैंको द्वारा बड़े पैमाने पर सोने का संचय होने लगा हे और डॉलर प्रभुत्व को ख़त्म करने की कोशिश होने लगी है। पुरे विश्व में अंतराष्ट्रीय व्यापार अमरीकी डॉलर में लगबघ ७०% है तथा इम्पोर्ट के लिए इसका संचय करना पड़ता है। यूक्रेन और रशिया के युद्ध ने इस आर्थिक परिस्थिति को पूरी तरह से बदल डाला है। रशिया के अंतराष्ट्रीय अकाउंट को वर्ल्ड बैंक द्वारा फ्रीज़ कर दिया गया जिसपर अमरीका का प्रभाव देखा जाता है।

आर्थिक पाबंदी यह यूरोप और अमरीका जैसे देशो का महत्वपूर्ण आर्थिक हतियार संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से देखने को मिलता है। सुरक्षा समिति के प्रमुख सदस्यता पर इंग्लैंड ,फ्रांस और अमरीका जैसे देशो की वीटो शक्ति देखने को मिलती हे जो रशिया और चीन से संख्या में एक ज्यादा है , इसके मायने बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए अपने आर्थिक हितो के रक्षण के लिए यह देश एशियाई और अफ़्रीकी देशो पर आर्थिक नीतिया डालने की कोशिश हमेशा करती रही है।

इसलिए चीन , भारत और रशिया जैसे एशिया के प्रमुख देशो ने अपने अंतराष्ट्रीय व्यापार में अमरीकी डॉलर के पर्याय पर काम करना शुरू किया है। सऊदी अरेबिया जैसे प्रमुख ऑइल भंडार के देशो द्वारा अब अपनी राजनितिक और आर्थिक निति में बदलाव करने के संकेत पिछले कुछ दिनों से लिए हुए देखने को मिलते है। अमरीका एक महाशक्ति डॉलर के अंतराष्ट्रीय मुद्रा तथा सुरक्षा उत्पादन उद्योग के माध्यम से बना रहा हे परन्तु आज इसको ख़त्म करने की कोशिश बहुत सारे देशो के माध्यम से होने लगी है।

सोने की विश्व अर्थव्यवस्था का इतिहास / History of Gold Economy in the World –

हजारो सालो की मानव सभ्यता में वस्तुविनिमय से विकसित होकर इंसान सोने,चांदी के सिक्के का इस्तेमाल व्यापार के लिए करने लगा। दूसरे विश्वयुद्ध तक आते आते सोने का महत्त्व आर्थिक व्यापार में काफी बढ़ा और अमरीका की अर्थव्यवस्था को इससे काफी सहायता मिली क्यूंकि युद्ध के लिए लगाने वाली सामग्री बड़ी मात्रा में अमरीकी उद्योग द्वारा बनाई गई और खूब सारा प्रॉफिट बनाया गया जिसको सोने के माध्यम से लिया गया। इससे अमरीका की अर्थव्यवस्था काफी मजबूत हुई जहा यूरोप और बाकि ब्रिटिश कॉलनी के देश इससे आर्थिक संकट में फस गए।

ब्रिटेन वुड एग्रीमेंट के माध्यम से १९४४ में अमरीकी सोने को आधार बनाकर अमरीकी डॉलर को मान्यता दी गयी जिसको १९७१ आते आते यूरोपीय देशो द्वारा विरोध होने लगा। इसलिए अमरीका ने इसका रास्ता खोज निकाला जो ओपेक के माध्यम से डॉलर को अंतराष्ट्रीय मुद्रा घोषित किया गया। विश्व तेल उद्योगपर नियंत्रण बनाकर अमरीका द्वारा फिर से डॉलर को मजबूत किया गया। जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ तथा विश्व बैंक के माध्यम से पूरी दुनिया के आर्थिक व्यवस्थापर नियंत्रण रखा जा सके।

इससे जो भी देश यूरोप और खास कर अमरीका के आर्थिक निति का विरोध करता हे उसे आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता हे जिसमे ईरान, तुर्की जैसे देश इसका परिणाम देख चुके है। भारत और चीन को भी कई बार आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से धमकाया गया है। जागतिकी कारन के कारन सभी देश एक दूसरे पर निर्भर हे इसलिए बिना अंतराष्ट्रीय व्यापार के कोई भी देश अपना विकास नहीं कर सकता इसलिए आज हम देखते हे की सोने खरीद बढाकर सभी देश अपनी अर्थव्यवस्था को स्वावलंबी बनाना चाहते है।

डिजिटल मुद्रा तथा स्विफ्ट कोड सिस्टम का वर्चस्व / Digital Currency & Dominance of SWIFT Code System –

इंटरनेट तथा कंप्यूटर की क्रांति के बाद दुनियाभर में मुद्रा की संकल्पना में बदलाव देखने को मिलते है, जिसमे १९७३ में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख देशो ने मिलकर एक संस्था बनाई जिसके माध्यम से डिजिटल व्यवहार करने की सुविधा हुई। आज लघबघ दुनिया के सभी देश अपने अंतराष्ट्रीय व्यवहार स्विफ्ट कोड के माध्यम से करते हे और लगबघ ११००० बैंक और २०० देश इससे जुड़े हुए है।

यूरोप और अमरीका की टेक्नोलॉजी का इस सिस्टम पर पूरी तरह वर्चस्व हे जिसके माध्यम से रशिया पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने के लिए उसके अंतराष्ट्रीय अकाउंट फ्रीज़ कर दिए गए। यह कितना सही हे अथवा गलत यह राजनितिक चिंतन का विषय हे मगर इससे दुनिया के सभी देशो को जागतिक निति के तहत चलना हे अगर वह ऐसा नहीं करते तो उसको अंतराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है, ऐसा कई विशेषज्ञों मानना है।

इसलिए मुख्य रूप से एशियाई प्रमुख देशो खुद को इस सिस्टम के लिए पर्याय तैयार कर रहे है, जिसमे चीन और भारत अग्रणी है। जागतिकी करन के कारन कोई भी देश दुनिया से अलग नहीं रह सकता मगर केवल कुछ देश मिलकर दुनिया की आर्थिक निति नहीं बना सकते ऐसा कूट नीतिज्ञो का मानना है। इसलिए डी-डॉलरायझेशन का यह प्राथमिक पड़ाव हमें देखने को मिलता है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में डी-डॉलरायझेशन के कारन / Causes of De-Dollarization in the World Economy –

पिछले पांच दशकों से हमने निरंतर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हुए देखे हे जिसमे तेल उत्पादन देश जिसे हम अरब कन्ट्रीज कहते है, जहा युद्ध और सत्तांतर निरंतर देखने को मिलते है। जिसके कारन यह देश पश्चिमी राजनितिक और आर्थिक निति से परेशान हे और इससे निकलना चाहते है। ईरान,इराक जैसे देशो ने इस पश्चिमी आर्थिक निति के विरोध का परिणाम झेला हे और सऊदी अरब जैसे राजतन्त्र वाले देश मज़बूरी में इसका पालन करते रहे है।

पिछले कुछ दिनों से ओपेक इस तेल उत्पादन संस्था की प्रमुख उत्पादक सऊदी अरेबिया ने खुद को अमरीका के प्रभाव से बाहर निकलने के संकेत दिए है। इसका दूसरा अर्थ होता हे की वह डी-डॉलरायझेशन की तरफ बढ़ रहा है। अमरीका और रशिया के राजनितिक कूटनीति में यूरोप और अन्य देश आर्थिक दृष्टी से पीस रहे हे और वह भी चाहते हे की उनकी अर्थव्यवस्था स्वातंत्र्य रहे। इसलिए न केवल एशियाई अफ़्रीकी देश अमरीकी डॉलर के प्रभुत्व से छुटकारा चाहते हे बल्कि यूरोपीय देश भी यह संकेत देने लगे है।

यूक्रेन और रशिया के युद्ध के बिच में गैस, गेहू और ऑइल जैसे वस्तुओ पर कई यूरोपीय देश निर्भर हे जिसपर बुरी तरह से प्रभाव देखने को मिलता है। दुनिया के सभी देश आर्थिक मंदी की चपेट में देखने को मिलते हे जिसमे इंग्लैंड ,फ्रांस और जर्मनी जैसे प्रमुख यूरोपीय देश है। अमरीकी डॉलर का संचय रखना और अपनी आर्थिक निति यूरोप और अमरीका पर निर्भर रखना सभी देशो के लिए जोखिमभरा दिख रहा है। इसलिए पुराने तरीके से गोल्ड का संचय यह सबसे सटीक उपाय अर्थव्यवस्था के लिए दिखता है।

डी-डॉलरायझेशन के अमरीका पर परिणाम / Effects of US Economy of De-Dollarization –

द्वितीय विश्व युद्ध से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था तहस नहस हुई थी, वसाहतवाद के माध्यम से गैर यूरोपीय देश इस युद्ध में घसीटे गए। युद्ध सामग्री का खूब इस्तेमाल हुवा जिसका फायदा अमरीका की युद्ध सामग्री उत्पादन करने वाली कंपनियों को फायदा हुवा। वैसे भी अमरीका इस युद्ध में आखरी समय तक दुरी बनाए रखे थे और दोनों तरफ युद्ध सामग्री सप्लाई कर रही थी। जिसका फायदा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका एकदम से आर्थिक महासत्ता के रूप में उभरा और इंग्लैंड का महासत्ता का ताज छीन लिया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध में युद्ध सामग्री के ऐवज में सोना मुद्रा के रूप में अमरीका ने लेना शुरू किया जिसका परिणाम उनकी अर्थव्यवस्था में सोने का संचय दुनिया की सबसे सुरक्षित अर्थव्यवस्था के रूप में प्रस्थापित हुवा। जिसको विश्वयुद्ध के बाद आधार बनाकर अमरीकी डॉलर को अंतराष्ट्रीय व्यापार के लिए चुना गया। लेकिन फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशोंने बाद में इसका विरोध करना शुरू किया जिसे देखते हुए अमरीका ने कच्चे तेल के मध्य एशिया देश के ओपेक जैसे संस्था से एग्रीमेंट बनाकर अमरीकी डॉलर को अंतराष्ट्रीय मुद्रा बनाए रखने के लिए सफलता हासिल करी।

डिजिटल क्रांति के बाद स्विफ्ट कोड के माध्यम से पुए अंतराष्ट्रीय व्यापार पर वह पुनः वर्चस्व हासिल करने में सफल रहा तथा आर्थिक प्रतिबन्ध में अमरीका के दोहरी निति को सब देश समझने लगे और अपनी अर्थव्यवस्था को अमरीकी डॉलर से अलग रखकर सुरक्षित रखना सही होगा ऐसा उनको लगने लगा। इसलिए पिछले दस सालो से अमरीका के बाद की बाकि अर्थव्यवस्था खुद को स्वतंत्र रखने की कोशिश कर रही हे जिसमे अमरीकी डॉलर को पर्याय देख रही है।

  • अमरीका पर डी-डॉलरायझेशन के परिणाम यह महासत्ता का ताज छीन सकता हे यह पहला परिणाम होगा।
  • लेबर कॉस्ट ज्यादा होने के कारन अमरीका इंडस्ट्री चीन और भारत जैसे देश पर निर्भर हे जिसकी कीमत बढ़ जाएगी।
  • दुनिया की बाकि देश अमरीकी डॉलर का संचय करना बंद करेंगे जिससे डॉलर का मूल्य कम होते जाएगा और इससे अमरीका का इम्पोर्ट खर्चा बढ़ेगा।
  • डी-डॉलरायझेशन से संयुक्त राष्ट्र और स्विफ्ट जैसी वित्तीय संस्था पर अमरीका का प्रभाव कम हो सकता है।
  • डी-डॉलरायझेशन से अमरीका में महंगाई और बेरोजगारी बढ़ने की संभावना है।

डी-डॉलरायझेशन  के भारत पर परिणाम / De-Dollarization Effect on India –

भारत ने कई बार अमरीका की आर्थिक निति के विरोध में जाकर निर्णय लिए है, जिससे उसे आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कुछ हद तक करना पड़ा है। मध्य पूर्व एशियाई देशो को सबसे ज्यादा कहर अमरीका के निति के खिलाफ जाने से भुगतना पड़ा है। ऐसा नहीं हे की पूरी तरह से अमरीका निति को दोष देकर बाकि देश पाक साफ बन जाते हे मगर अमरीका की सधनता का प्रमुख कारन उसकी राजनितिक कूटनीति हमेशा से रही है।

इसलिए भारत की अर्थव्यवस्था की बात करे तो १९९१ में हमने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया हे और एकतरह से हमने अमरीकी कंपनियों को भारत में व्यापार करने के लिए आमंत्रित किया है। इससे पहले विदेशी कम्पनिया भारत में नहीं थी ऐसी बात नहीं हे मगर सरकारी हस्तक्षेप काफी ज्यादा होते थे जिसको शिथिल किया गया। फिर भी अमरीका ने भारत की बजाय चीन में निवेश करना प्राथमिकता में रखा जिससे जितना फायदा भारत को अपनी अर्थव्यवस्था खुली करने का मिलना चाहिए था वह नहीं मिला।

इसलिए भारत ने रशिया पर लगे प्रतिबंधों को देखते हुए अपना स्टैंड तटस्थ रखते हुए अपने हित को प्राथमिकता में रखा है जिससे अमरीका नाराज हुवा है। भारत ने डिजिटल मुद्रा के माध्यम से ईरान तथा रशिया से अपने व्यापार को शुरू किया है। जिससे भारत पर इसके परिणाम देखने को मिलेंगे जो है

  • आयात पर लगने वाला पैसा कम लगेगा परन्तु भारत में निवेश पर नकारात्मक परिणाम देखने को मिलेगा और अमरीका चीन और भारत से अलग पर्याय ढूंढ़ने लगेगा।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक ने सोने की खरीद पर अपना ध्यान रखा हे जिससे डॉलर की बजाय सोने को फिर से सुरक्षित मुद्रा के तौर पर प्रस्थापित किया जाए।
  • टेक्नोलॉजी के मामले में हम बहुत ज्यादा अमरीकी कंपनियों पर निर्भर हे जिससे डी डॉलरयझेशन की निति से इसपर परिणाम हो सकता है।
  • अमरीका में जितनी भी सर्विसेज और उत्पादन भारत से जाते हे उसपर डी डॉलरयझेशन से परिणाम होगा और इनकम काम होगा।
  • भारत को डी डॉलरयझेशन की निति अपनाते समय टेक्नोलॉजी तथा अन्य क्षेत्रो में अमरीका पर निर्भरता को ख़त्म करना होगा।

निष्कर्ष / Conclusion –

वैश्वीकरण, खुद की मुद्रा का अवमूल्यन यह अमरीकी डॉलर को अंतराष्ट्रीय मुद्रा बनाने का प्राथमिक नियम माना जा सकता है, तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना तथा इसके विविध संस्थाए अमरीका के प्रभाव में कार्य करती हे ऐसा आलोचक मानते है। समय समय पर आर्थिक निर्बंध यह इस प्रभुत्व की पुष्टि करते है, जिसमे रशिया और अमरीका का शीत युद्ध काफी परिणाम करता रहा है। जिसमे लोकतंत्र के कौनसे मॉडल को अपनाना हे इसका यह संघर्ष रहा है। जिसमे अमरीका का पूंजीवादी लोकतंत्र का मॉडल आज लगबघ हर देश ने अपनाया है।

रशिया और चीन ने अपने अपने साम्यवादी विचारधारा को जिन्दा रखकर उदारवाद की निति को स्वीकारा है जिसमे चीन ने सफलता हासिल की हुई है। डी-डॉलरायझेशन यह अमरीका के व्यतिरिक्त बहुत सारे देश अमरीका को अगले भविष्य में स्पर्धा करने की क्षमता रखते है। वैश्वीकरण की निति को लगबघ सभी देशो ने अपनाया हे परन्तु इसकी कुछ खामिया भी हे, जिसमे अगर एक देश में आर्थिक मंदी आती हे तो इसका परिणाम पुरे दुनिया में देखने को मिलता है।

कुदरती सम्पदा का इस्तेमाल आजतक यूरोप और अमरीका के विकास में ज्यादा इस्तेमाल किया गया हे तथा अफ़्रीकी और एशियाई देशो को अभी अपने विकास को देखना हे मगर संयुक्त राष्ट्र संघ के श्रुष्टि के संरक्षण के लिए बनाई गयी निति के कारन यह विकासशील देश कुछ हदतक विरोध कर रहे है। इसलिए डी-डॉलरायझेशन यह आर्थिक निति जो मुख्य रूप से यूरोप और अमरीका के आलावा जो देश भविष्य में बड़ी अर्थ व्यवस्था बनाने जा रहे है, उनके द्वारा अमल में लायी गयी है ऐसा प्रतीत होता है।

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